Wednesday, July 29, 2009

क्या तब भी ? / अमरजीत कौंके


क्या तब भी तुम
इसी तरह चाहोगी मुझे ?

सफ़र जब मेरे पांवों में सिमट आया
आईने को भूल गई
मेरे नक्शों की पहचान
उग आया मेरे चेहरे पर सफ़ेद जंगल
मेरी शाखाओं से तोड़ लिया जब
बहार ने रिश्ता
क्या तुम तब भी
मेरी सूखी शाखाओं पर
घोंसला बनाने का
खाब देखोगी ?

आकाश के पन्नों पर लिखा
मिट गया जब नाम मेरा
आँखों की दहलीज़ पर उतर आयीं
जब संध्या की परछाई
रौशनी जब मेरी आँखों में सिमट आई
परवाज़ मेरे पंखों को
कह गयी जब अलविदा.....

शब्द मेरा हाथ छोड़ कर
दुनिया के मेले में खो गए
मेरी कलम से
रूठ गई कविताएँ जब

क्या तब भी

तब भी
इसी तरह चाहोगी
मेरी महबूब मुझे......?

Tuesday, July 21, 2009

नदी एक साँवली सी / अमरजीत कौंके


अक्सर आती मेरे पास
नदी एक साँवली सी
हम खामोश एक दुसरे की आँखों में देखते
अनगिनत बातें करते
अनगिनत अहद

हम हँसते तो
हवाओं में किसी के चिंघाड़ने की
आवाजें सुनती
दीवारों में आँखें जाग उठती
सूरज आग उगलने लगता

वह कहती
मुझे धुप से डर लगता है
मुझे हवा से खौफ आता है
दूर ले चलो मुझे
सपनो के जामुनी देस
जहाँ ना धुप हो ना हवा

कैसे समझाता
उस सांवली नदी को मै

कि
धुप और हवा के बिना
जीना कितना कठिन होता है
कितना कठिन होता है.........

Sunday, July 19, 2009

फिश एकुएरियम / अमरजीत कौंके



उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों के
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे उस के नयनों में सपने
जब परिंदों के घर लौटने का
वक्त था

उसकी उम्र में जब आया प्यार
तो उसे
फिश एकुएरियम में
तैरती मछलिओं पर
बहुत तरस आया

फैंक दिया उसने फर्श पर
कांच का मर्तवान
मछ्लिओं को आजाद करने के लिए
तड़प तड़प कर मरी मछलिआं
फर्श पर
पानी के बगैर

वो बावरी नहीं थी जानती
कि मछलिओं को
आजाद करने के भ्रम में
उसने मछलिओं पर कितना
जुलम किया है......

०९८१४२-३१६९८

Saturday, July 18, 2009

शिला / अमरजीत कौंके


वह जो
मेरी कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई

बहुत सिमृतीओं का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हंसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आया
इस तरह यादों से परे
शिला हो गई वह

उसके एक और मैं था
सूरज के घोडे पर सवार
किसी राजकुमार की भाँति
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अंगुली पकड़ कर
अनोखे अम्बरों में
उसे घुमाता

एक और उसका घर था
जिसमे उसकी उम्र दफ़न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलांग रहे थे

एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिंधूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था

समाज के बंधन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेडिआं बनते जा रहे थे
उसे अब लगता था
कि उसके सपने
उसके संस्कार ही खा रहे थे

इन सब में इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई....................

अंतहीन दौड़ / अमरजीत कौंके


मैं रेस का घोड़ा हूँ
मुझ पर हर किसी ने
अपना अपना दांव लगाया है

किसी ने ममता
किसी ने फर्ज़
संस्कार परम्पराएं
कहीं मोहब्बत, मोह , भय
किस किस तरह का
वास्ता पाया है

अनगिनत सदिओं से
मैं दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़

दौड़ता दौड़ता कभी गिरता हूँ
उठता हूँ
और फिर दौड़ने लगता हूँ

मेरी कोई जीत मेरी नहीं
मेरी कोई हार मेरी नहीं
मेरा कुछ भी मेरा नहीं

मोह, मोहब्बत, ममता,
रिश्तों का क़र्ज़ उतारने के लिए
मैं लगातार दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़

मैं लगातार दौड़ रहा हूँ

और पीछे छूटती जा रही हैं कविताएँ..................

कुछ शब्द / अमरजीत कौंके


कुछ शब्द

लिखे थे
किसी और के लिए
पढ़े किसी और ने
समझा कोई और

पढ़ कर
भावुक कोई और हुआ
प्रभावित कोई और
गुस्से
कोई और हुआ
ख़ुशी हुई किसी और को

कुछ शब्द
जिस के लिए लिखे थे

सिर्फ उसी ने नहीं पढ़े ................