Wednesday, September 16, 2009

राज़ / अमरजीत कौंके



वह हंसती तो
मोतिओं वाले घर का
दरवाज़ा खुलता
और खिलखिलाने लगती कायनात
मैं हैरान हो कर पूछता उस से
कि इस हंसी का राज़ किया है.....?

उसके चेहरे पर
पृथ्वी का संयम था
उसके माथे पर
आकाश की विशालता
सूर्य का तेज़ था
उसकी आँखों में
अपने वालों को
वो इन्द्र्ध्नुशय से यूँ बांधती
कि कायनात खिल उठती
समुंदर की तरह गहरी
उसकी आँखों में
कहीं कोई किश्ती
नहीं थी ठहरती.....

उम्र की सीढ़ी पर
मुझसे कितने ही डंडे
ऊपर खड़ी
वह औरत
संयोग के पलों में
मुझ से कितने ही वर्ष
छोटी बन जाती........

और मैं
हैरान हो कर पूछता उस से

कि इस ताजगी का
राज़ किया है..........??????

Friday, September 11, 2009

एक रात / अमरजीत कौंके



एक रात मैं निकला
खाबों की ताबीर के लिए
तो मैंने देखा
कि
शहर के हर मोड़
हर चौराहे पर
बेठे हैं कुत्ते
मोटे मोटे झबरे कुत्ते

मैं बहुत डरा
और बहुत घबराया
लेकिन फिर भी
बचता बचाता
शहर के दुसरे किनारे पर
निकल आया

तभी अचानक
एक कुत्ते ने
मुझे देखा
और
सही सलामत पाया
बस यही देख कर
उसने मुझे
काट खाया

कहने लगा -

तू कुत्तों की बस्ती में से
बच कर कैसे निकल आया....??????

Sunday, September 6, 2009

कैसे / अमरजीत कौंके



मेरी आँखों में
लोग तुम्हारी तस्वीर
पहचान लेते हैं
मेरे चेहरे से
तुम्हारी मुस्कान
मेरे पैरों से लोग
तुम्हारे घर का
रास्ता ढूंढ़ लेते हैं.....

मेरी अंगुलिओं से लोग
तुम्हारे नक्श तराशते
मेरे कानों से
तुम्हारी आवाज़ सुनते
मेरे शब्दों से लोग
तुम्हारे नाम की
कविताएँ ढूंढ़ लेते
मेरे होंठों से
तुम्हारे जिस्म की
महक पहचान लेते हैं.....

जिस्म मेरा है
पर
मेरे जिस्म में
तुम
किस किस तरह से
रहती हो......
098142 31698

Thursday, September 3, 2009

माँ और बच्चा / अमरजीत कौंके



माँ बहुत चाव से
गमले में उगाती है
मनीप्लांट

बच्चा घिसटता जाता है
तोड़ डालता है पत्ते
उखाड़ फेंकता है
छोटा सा पौधा

माँ
फिर मिटटी में बोती है
मनीप्लांट
बच्चा
फिर निकाल फेंकता है
जड़ से
फूटने पर नए पत्ते

माँ फिर हिम्मत्त नहीं छोड़ती
लेकिन बच्चा फिर जा रहा है
पौधे की तरफ लपकता

मैं देख रहा हूँ
कितने दिनों से
माँ और बच्चे की
यह मीठी खेल

देखता हूँ
कि आखिर जीतता कौन है

माँ की हिम्मत
या बच्चे कि जिद्द........?????

Tuesday, September 1, 2009

कविता / अमरजीत कौंके


तृप्त हो तुम
एक समुंदर की तरह
मैं एक प्यासा मुसाफिर
जन्म जन्मान्तर का

बार बार लौटता हूँ
पास तुम्हारे
अनंत दिशाओं में भटकता
तुझ में ढूंढ़ता हूँ
पनाह
तुम्हारे आगोश में
आ गिरता हूँ बार बार

मुझे भी कर ले
आत्मसात
अपने भीतर

मुक्त कर दे
मुझे
इस आवागमन के
चक्र से

ऐ तृप्त समुंदर!