Monday, January 18, 2010

पर्स / अमरजीत कौंके



जादू की पिटारी लगता है
मुझे पर्स उसका
जिस में से अचानक
निकल आता है सब कुछ
जरुरत के मुताबिक

बरसात के दिनों में छतरी
भूख से समय रोटी का डिब्बा
लिपस्टिक, बिन्दिओं के पत्ते
बस की पुरानी टिकटें
बच्चे की फीस की रसीद
कितना कुछ छिपा पड़ा है
उसके पर्स में

कितना कुछ है
उस के पर्स में
कितने टूटे हुए स्वप्न
कितने अधूरे ख्वाब
कितनी दबी हुई ख्वाहिशें
एक बेचैन कवि की
कविताओं की किताब

लगता है मुझे
क़ि किसी दिन सहज ही
अपने पर्स से
निकाल लेगी वह
चाँद, सूरज और सितारे
दरिया, नदिया
और समुन्दर खारे

लगती है बात
चाहे यह असंभव सी
लेकिन अपने पर्स के भीतर से
एक दिन निकाल लेगी
वह सारा कुछ.........