Thursday, December 8, 2011

मुठ्ठी भर रौशनी / अमरजीत कौंके



सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ अभी

शेष है अब भी
मुठ्ठी भर रौशनी
इस तमाम अँधेरे के खिलाफ

खेतों में अभी भी लहलहाती हैं फसलें
पृथ्वी की कोख तैयार है अब भी
बीज को पौधा बनाने के लिए..

किसानों के होठों पर
अभी भी लोक गीतों की ध्वनियाँ नृत्य करती हैं
फूलों में लगी है
एक दुसरे से ज्यादा
सुगन्धित होने की जिद
इस बारूद की गंध के खिलाफ

शब्द अपनी हत्या के बावजूद
अभी भी सुरक्षित हैं
कविताओं में

और इतना काफी है......

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