Thursday, December 8, 2011
मुठ्ठी भर रौशनी / अमरजीत कौंके
सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ अभी
शेष है अब भी
मुठ्ठी भर रौशनी
इस तमाम अँधेरे के खिलाफ
खेतों में अभी भी लहलहाती हैं फसलें
पृथ्वी की कोख तैयार है अब भी
बीज को पौधा बनाने के लिए..
किसानों के होठों पर
अभी भी लोक गीतों की ध्वनियाँ नृत्य करती हैं
फूलों में लगी है
एक दुसरे से ज्यादा
सुगन्धित होने की जिद
इस बारूद की गंध के खिलाफ
शब्द अपनी हत्या के बावजूद
अभी भी सुरक्षित हैं
कविताओं में
और इतना काफी है......
098142 31698
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
ख़ुशी / अमरजीत कौंके तुम खुश होती हो मेरा गरूर टूटता देख कर मुझे हारता हुआ देख तुम्हें अत्यंत ख़ुशी होती है मैं खुश होता हूँ तुम्हें खुश देख...
-
माँ बहुत चाव से गमले में उगाती है मनीप्लांट बच्चा घिसटता जाता है तोड़ डालता है पत्ते उखाड़ फेंकता है छोटा सा पौधा माँ फिर मिटटी में बोती है म...
-
प्यार करते करते अचानक वह रूठ जाती सीने मेरे पर सर पटक के बोलती-- फिर आये हो वैसे के वैसे मेरे लिए नयी कवितायेँ क्यों नहीं लेकर आये मैं कहता-...
2 comments:
bahut sundar, apne aap mein bahut gehre arth samaaye huye hai
बहुत सुन्दर सृजन, आभार.
कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा .
Post a Comment