Monday, March 22, 2010

युद्धरत्त / अमरजीत कौंके



एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर

इस अँधेरे के पार मुझे
मेरी माँ का चेहरा नज़र आता है
इस अँधेरे के पार मुझे
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
दिखाई देते हैं.....

लेकिन मेरे पास कोई चिराग नहीं
जिस से मैं यह अँधेरा जला दूँ

अपनी कविताओं से
मैं वह चिराग जलाने की कोशिश में हूँ
अपने भीतर शब्दों की दीपशिखा
दहकाने की कोशिश में हूँ

यह अँधेरा शायद
मेरी ख़ामोशी का अँधेरा है
या मेरे भीतर की उदासी का नाम
मैं जो शब्दों को ढूंढने निकला था
अजनबी अर्थों में घिर गया हूँ.......

लेकिन अपनी कविताओं के सहारे
मैं ये सभी बँधन तोड़ने के लिए
यतनशील हूँ

क्यों क़ि
शीशे क़ि इस दीवार के पार
मुझे मेरी माँ का चेहरा दिखता है....
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
मुझे बुला रहे हैं.............

Wednesday, March 10, 2010

नेम प्लेट / अमरजीत कौंके



तमन्ना थी उसकी
कि इक नेम प्लेट हो अपनी
जिस पर लिखे हों
हम दोनों के नाम

मैंने कहा-
नेम प्लेट के लिए
एक दीवार चाहिए
दीवार के लिए घर
घर के लिए
तुम और मैं
तुम और मैं और बच्चे

बच्चे....

बच्चे कह कर
उसने नज़रें चुरा लीं
और दूर आकाश में देखने लगी

जैसे तलाश रही हो...

घर

बच्चे

और

नेम प्लेट ...............