Friday, November 5, 2010
ख़ुशी / अमरजीत कौंके
ख़ुशी / अमरजीत कौंके
तुम खुश होती हो
मेरा गरूर टूटता देख कर
मुझे हारता हुआ देख
तुम्हें अत्यंत ख़ुशी होती है
मैं खुश होता हूँ
तुम्हें खुश देख कर
तुम्हें जीतता
देखने की ख़ुशी में
मैं
हर बार
हार जाता हूँ........
Saturday, October 16, 2010
मछलियाँ / अमरजीत कौंके
उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों की
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे
उसके नयनों में सपने
जब परिंदों के
घर लौटने का वक्त था
उसकी उम्र में
जब आया प्यार
तो उसे
फिश एकुएरियम में
तैरती मछलियों पर बहुत
तरस आया
फैंक दिया उसने
काँच का मर्तबान
फर्श पर
मछलियों को
आज़ाद करने के लिए
लेकिन
तड़प तड़प कर
मर गईं मछलियाँ
फर्श पर
पानी के बगैर
नहीं जानती थी
वह बावरी
कि
मछलियों को
आज़ाद करने के भ्रम में
उसने मछलियों पर
कितना जुलम किया है.....
Sunday, September 26, 2010
तुम्हारी देह जितना / अमरजीत कौंके
देखे बहुत मैंने
मरुस्थल तपते
सूरज से
अग्नि के बरसात होती
देखी कितनी बार
बहुत बार देखा
खौलता समुंदर
भाप बन कर उड़ता हुआ
देखे ज्वालामुखी
पृथ्वी की पथरीली तह तोड़ कर
बाहर निकलते
रेत
मिटटी
पानी
हवा
सब देखे मैंने
तपन के अंतिम छोर पर
लेकिन
तुम्हारी देह को छुआ जब
महसूस हुआ तब
कि कहीं नहीं तपन इतनी
तुम्हारी काँची देह जितनी
रेत
न मिटटी
पानी न पवन
कहीं कुछ नहीं तपता
तुम्हारी देह जितना......
098142-31698
Saturday, August 7, 2010
कविता संग निपट अकेला / अमरजीत कौंके
सुख था जितना बाँट दिया सब
दुःख था जितना मन पर झेला
मैं कविता संग निपट अकेला....
अपने आंसू रही भीगती
अपनी सूखी काया
जीवन गुज़रा मिली कहीं न
सघन बृक्ष की छाया
गहन उदासी मन पर छाये
उतरे साँझ की बेला
मैं कविता संग निपट अकेला.....
लाख दरों पर दस्तक दे दी
खुला कोई न द्वार
ख़ामोशी का गहरा सागर
कर न पाया पार
मन के आँगन अब भी लगता
स्मृतिओं का मेला
मैं कविता संग निपट अकेला....
इन नयनों ने भूले भटके
जब भी देखे सपने
कागज़ की कश्ती के जैसे
डूब गए सब अपने
रेत-घरौंदे टूटे आया
जब पानी का रेला
मैं कविता संग निपट अकेला.........
098142-31698
Tuesday, June 22, 2010
दुखों भरी संध्या / अमरजीत कौंके
जितनी देर दोस्त थे
कितनी सहज थी जिन्दगी
ना तुम औरत थी
ना मै मर्द
एक दुसरे का दर्द
समझने की कोशिश करते.....
अचानक
पता नहीं क्या हादिसा हुआ
जिस्म से जिस्म छुआ
हम बँट गए
औरत और मर्द में
मोहब्बत की ख़ुशी में
प्यार के दर्द में
अब मिलते हैं
तो सहज नहीं
दिलों में चोर है
मिलते तो खुश होते
विछुड़ते तो कायनात की उदासी
नयनों में भर के
सड़कों चौराहों से डर के
कितने गुनाह कर के
लेकिन
मेरी दोस्त
फिर भी यूँ नहीं लगता
कि विछुड़ने की यह
दुःख भरी संध्या
कितनी प्यारी है...
उदासी है चाहे जानलेवा
लेकिन दुनिया की
सब खुशिओं पर भारी है............
Friday, May 28, 2010
पवन करण की पुस्तक "स्त्री मेरे भीतर" का पंजाबी अनुवाद "औरत मेरे अन्दर"
Saturday, May 15, 2010
लड़की / अमरजीत कौंके
बचपन से यौवन का
पुल पार करती
कैसे गौरैया की तरह
चहकती है लड़की
घर में दबे पाँव चलती
भूख से बेखबर
पिता की गरीबी से अन्जान
स्कूल में बच्चों के
नए नए नाम रखती
गौरैया लगती है लड़की
अभी उड़ने के लिए पर तौलती
और दो चार वर्षों में
लाल चुनरी में लिपटी
सखिओं के झुण्ड में छिपी
ससुराल में जाएगी लड़की
क्या कायम रह पायेगी
उसकी यह तितलिओं सी शोखी
यह गुलाबी मुस्कान
गृहस्थ की तमाम कठिनाइयों के बीच
बचा के रख पायेगी क्या
वह अपनी सारी मासूमियत
कैसे बेखबर आने वाले वर्षों से
गोरैया की तरह
चहकती है लड़की.........
098142 31698
Monday, March 22, 2010
युद्धरत्त / अमरजीत कौंके
एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर
इस अँधेरे के पार मुझे
मेरी माँ का चेहरा नज़र आता है
इस अँधेरे के पार मुझे
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
दिखाई देते हैं.....
लेकिन मेरे पास कोई चिराग नहीं
जिस से मैं यह अँधेरा जला दूँ
अपनी कविताओं से
मैं वह चिराग जलाने की कोशिश में हूँ
अपने भीतर शब्दों की दीपशिखा
दहकाने की कोशिश में हूँ
यह अँधेरा शायद
मेरी ख़ामोशी का अँधेरा है
या मेरे भीतर की उदासी का नाम
मैं जो शब्दों को ढूंढने निकला था
अजनबी अर्थों में घिर गया हूँ.......
लेकिन अपनी कविताओं के सहारे
मैं ये सभी बँधन तोड़ने के लिए
यतनशील हूँ
क्यों क़ि
शीशे क़ि इस दीवार के पार
मुझे मेरी माँ का चेहरा दिखता है....
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
मुझे बुला रहे हैं.............
Wednesday, March 10, 2010
नेम प्लेट / अमरजीत कौंके
Monday, January 18, 2010
पर्स / अमरजीत कौंके
जादू की पिटारी लगता है
मुझे पर्स उसका
जिस में से अचानक
निकल आता है सब कुछ
जरुरत के मुताबिक
बरसात के दिनों में छतरी
भूख से समय रोटी का डिब्बा
लिपस्टिक, बिन्दिओं के पत्ते
बस की पुरानी टिकटें
बच्चे की फीस की रसीद
कितना कुछ छिपा पड़ा है
उसके पर्स में
कितना कुछ है
उस के पर्स में
कितने टूटे हुए स्वप्न
कितने अधूरे ख्वाब
कितनी दबी हुई ख्वाहिशें
एक बेचैन कवि की
कविताओं की किताब
लगता है मुझे
क़ि किसी दिन सहज ही
अपने पर्स से
निकाल लेगी वह
चाँद, सूरज और सितारे
दरिया, नदिया
और समुन्दर खारे
लगती है बात
चाहे यह असंभव सी
लेकिन अपने पर्स के भीतर से
एक दिन निकाल लेगी
वह सारा कुछ.........
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