Saturday, October 31, 2009
पता नहीं / अमरजीत कौंके
पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता
पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनूँ बन जाता
पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका मात्र रह जाता
पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती
पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भांति
गिरता और सूख जाता
पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे
बहुत बड़ा तैराक
होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।
098142 31698
Tuesday, October 27, 2009
प्रश्नों की माटी / अमरजीत कौंके
कभी कभी
पता नहीं
यह कैसा मौसम आ जाता है
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.....
हवा में पत्थर उछालता
मैं किस के इंतज़ार में बैठा हूँ...?
कौन है
जो मन के देश से
जलावतन हुआ
अभी तक नहीं लौटा......?
मैं किस के इंतज़ार में हूँ....?
खामोश रात से
मैं किस जुगनू का पता पूछता हूँ...?
उदास चंद्रमा मेरे किस
गम में शरीक है......?
मेरी कविताओं में
टूटते सितारों के
प्रतिबिम्ब क्यों बनते हैं....?
यह जो मेरे भीतर
बेचैनी पैदा करती है
किस की बांसुरी की आवाज़ है...?
ठहरी रात में रेल जब गुजरती है
तो मेरे पांवों में क्यों
मचलने लगती है भटकन....?
ये सोया हुआ शहर
क्यों चाहता हूँ मैं
कि अचानक जाग पड़े......?
ये कौन
मेरे भीतर
यूँ
प्रश्नों की माटी
उड़ा जाता है.....?
मेरे अन्दर
इतना सूनापन
पता नहीं
कहाँ से आ जाता है....
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.........
098142 31698
Monday, October 26, 2009
दुखों के बिना / अमरजीत कौंके
Tuesday, October 20, 2009
काश / अमरजीत कौंके
Wednesday, October 14, 2009
मैं, वह और कवितायेँ / अमरजीत कौंके
प्यार करते करते
अचानक वह रूठ जाती
सीने मेरे पर
सर पटक के बोलती--
फिर आये हो वैसे के वैसे
मेरे लिए नयी कवितायेँ
क्यों नहीं लेकर आये
मैं कहता--
कहाँ से लाऊं मैं कविताएँ
कुछ लिखने के लिए तो दे
दे मेरी कविता के लिए हादसा
या प्यार दे
वह कहती--
मेरे पास क्या है
कवि हो तुम
तुम्हारे पास हैं शब्द सारे
मैं कहता--
क्या नहीं तुम्हारे पास
ब्रह्माण्ड है पूरा तुम्हारे भीतर
और वह
ब्रह्माण्ड बन जाती
मैं उसके भीतर उतरता
पर्वतों की चोटियो पर खेलता
लहरों से अठखेलिया करता
उसके सीने में उड़ते
परिंदों के साथ उड़ान भरता
उसके भीतर
कितनी ही धराएं
कितने गृह नक्षत्र
कितने सूरज
जुगनुओं ली भांति
जगमग करते
मैं सुरजों को घोड़ा बना कर
अनंत दिशाओं में उन्हें तेज़ दौड़ाता
आंधी बन कर
उसके भीतर उथल पुथल करता
तूफ़ान बन कर शोर मचाता
पुरे का पूरा ब्रह्माण्ड होती थी वो
उस पल
मैं उसके पास से लौटता
तो कितनी ही कवितायेँ
इठलाती
वल खाती
झूम झूम कर
मेरे साथ चलतीं ......
098142 31698
Wednesday, October 7, 2009
बेचैनी-सहजता / अमरजीत कौंके
तुमसे प्यार करने के बाद
पता चला मुझे
कि कितनी सहज
रह सकती हो तुम
और मैं कितना बेचैन
कितनी सहज
रह सकती हो तुम
घर में सदा मुस्कराती
रसोई में
कोई गीत गुनगुनाती
अच्छी बीवी के
फ़र्ज़ निभाती
ऐसे कि घर दफ्तर
कहीं भी
पता नहीं चलता
कि किसी के
प्यार में हो तुम
लेकिन मै हूँ
कि तुम्हारे न मिलने पर
खीझ उठता हूँ
बेचैन रहता हूँ
किसी खूंटे से बंधे
घोड़े कि तरह
पैरों के नीचे की
जमीन खोदता हूँ
और सारी दीवारें तोड़ कर
तुम्हारे तक आने के लिए
दौड़ता हूँ....
मेरी बेचैनी
तुम्हारी सहजता से
कितनी भिन्न है.......
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