Monday, October 26, 2009

दुखों के बिना / अमरजीत कौंके




दुःख था
अंत की थी भूख
लेकिन मै
खुश हो जाया करता था
कविताएँ लिख कर......

अब
ख़ुशी चहचहाती
सुबह हंसती
शाम गाती
लेकिन
मै
अंत का उदास

कई बार
दुखों के बिना भी
दुखी हो जाता है आदमी.....

098142 31698

6 comments:

Renu goel said...

जिन्दगी से जुडी कविता ....
कई बार
दुखों के बिना भी
दुखी हो जाता है आदमी.....

हकीकत का रूप लिए

ओम आर्य said...

कई बार
दुखों के बिना भी
दुखी हो जाता है आदमी.....
पंक्तियो मे दम है सर जी............

rajni chhabra said...

aapki soch se itifaak rekhti hoon aur isi liye kahti hoon ki YA KHUDA! THODA SA ADHURAA REHNE DE,MER ZINDAGI KA PYAALA

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कई बार
दुखों के बिना भी
दुखी हो जाता है आदमी.....
बहुत सुन्दर.

vandana gupta said...

waah ........kya baat kahi hai.

padmja sharma said...

अमरजीत जी , 'दुखों के बिना' जीवन कहाँ हो पाता है जीवन .इसलिए जब वे हम से दूर जाते हैं तो हम उन्हे पास बुलाते हैं . वो गाना याद आ रहा है -आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ .