Thursday, August 27, 2009

जब से तुम गई हो माँ / अमरजीत कौंके


जब से तुम
गई हो माँ !
घर तिनकों की तरह
बिखर गया है.....

तुम पेड़ थीं एक
सघन छाया से भरा
घर के आँगन में खडा
जिस के नीचे बैठ कर
सब विश्राम करते
बतिआते
एक दुसरे के
दुःख सुख में
सांझीदार बनते.....

तुम चली गई माँ !
तो वो पेड़
जड़ से उखड़ गया है

वैसे
तुम्हारे जाने के बाद
सब वैसे का वैसे है
घर की दीवारें
घर की छतें
पर बदल गए हैं
उन छतों के
नीचे रहते लोग

घर का आँगन वही है
लेकिन आँगन का
वो सघन छाया भरा
बृक्ष नहीं रहा
जिस के नीचे
बैठ कर
सभी
एक दुसरे से
बतिआते थे
अपने अपने
दुःख सुख सुनाते थे

अब वो
बृक्ष नहीं रहा माँ !

जब से तुम चली गई........

Tuesday, August 25, 2009

दैवीय स्पर्श / अमरजीत कौंके




छुआ मुझे माथे पर उसने
तो पिघल गई
मेरी सारी उदासी
पर्वतों की चोटीओं से
पिघल जाती है बर्फ जैसे
धुप के होंठ छूने पर

छुआ मुझे आँखों पर उसने
तो फट गया
युगों से
मेरी आँखों में लटकता
उदास कैलेंडर

मेरे हाथों को छुआ उसने
तो अचानक हुई मेरे भीतर
शब्दों की बारिश
और अनेक कविताएँ
मेरे ह्रदय से फूट पड़ीं

होंठों पर छुआ उसने मुझे
बहने लगे मुझ में
शीत
निर्मल
चश्मे

उसका स्पर्श
दैवीय स्पर्श था कोई
जिसने मेरे मन की
बंजर पृथ्वी में
जगा दीं
नदीआं
चश्मे
कवितायेँ

निर्जीव मिटटी था मैं
उसके छूने से पहले

उसके स्पर्श से
धड़कने लगी
मुझ में
जिंदगी...........( पुस्तक "मुठ्ठी भर रौशनी" से )

Friday, August 21, 2009

तुम्हारे जाने के बाद / अमरजीत कौंके






तुम्हारे जाने के बाद
देर तक
दीवार पर सर
पटकता रहा कैलेंडर

पंखे के परों से
देर तक झरती रही उदासी

बहुत गहरा हो गया
मेरे कमरे में
फैला सन्नाटा

अचानक
उदास हो गई
सामने दीवार पर
मुस्कराती लड़की की तस्वीर

तुम्हारे जाने के बाद
कितनी ही देर
छटपटाता रहा
मेरे मन का
बेचैन मृग

तुम्हारे
फिर मिलने के
इंतज़ार में .............

Monday, August 17, 2009

कुछ नहीं होगा / अमरजीत कौंके


सब कुछ होगा
तुम्हारे पास
एक मेरे पास होने के
अहसास के बिना

सब कुछ होगा
मेरे पास
तुम्हारी मोहब्बत भरी
एक नज़र के सिवाय

ढँक लेंगे हम
पदार्थ से
अपना आप
एक सिरे से
दुसरे सिरे तक

लेकिन
कभी
महसूस कर के देखना
कि सब कुछ
होने के बावजूद भी
कुछ नहीं होगा
हमारे पास
अपने उन
मासूम दिनों की
मोहब्बत जैसा

जब
मेरे पास
कुछ नहीं था

जब
तुम्हारे पास
कुछ नहीं था.........

Tuesday, August 11, 2009

क्यों


क्यों आती हो
तुम पास मेरे
तोड़ कर सारी दीवारें
उलांघ कर
रास्तों की वर्जित रेखाएं
मन पर
गुनाह और प्यार की
कशमकश का बोझ लिए
क्यों आती हो तुम
पास मेरे

तुम्हारे उस से क्या
अलग है मुझ में ?


मैं आती हूँ तुम्हारे पास
कि तुम्हारे छूने से
मेरी देह में सोया हुआ
संगीत जागता है
और मेरे मुर्दा अंग
अंगडाई लेते हैं

मैं
इस लिए आती हूँ
तुम्हारे पास
कि तुम्हारे पास
मैं
एक जीती जागती
सांस लेती
धड़कती
महसूस करती
जीवंत औरत होती हूँ

और अपने उस के पास
सिर्फ एक मुर्दा लाश.....

इस लिए
आती हूँ मैं
पास तुम्हारे............

Saturday, August 1, 2009

गलती



तुम
मेरे हाथ की रेखा थी
खुदा ने
गलती से
किसी और के
हाथ पे खींच दी

खुदा की
इस गलती की सजा
पता नहीं हम

कितने जनम
और भुगतें...........