
जब से तुम
गई हो माँ !
घर तिनकों की तरह
बिखर गया है.....
तुम पेड़ थीं एक
सघन छाया से भरा
घर के आँगन में खडा
जिस के नीचे बैठ कर
सब विश्राम करते
बतिआते
एक दुसरे के
दुःख सुख में
सांझीदार बनते.....
तुम चली गई माँ !
तो वो पेड़
जड़ से उखड़ गया है
वैसे
तुम्हारे जाने के बाद
सब वैसे का वैसे है
घर की दीवारें
घर की छतें
पर बदल गए हैं
उन छतों के
नीचे रहते लोग
घर का आँगन वही है
लेकिन आँगन का
वो सघन छाया भरा
बृक्ष नहीं रहा
जिस के नीचे
बैठ कर
सभी
एक दुसरे से
बतिआते थे
अपने अपने
दुःख सुख सुनाते थे
अब वो
बृक्ष नहीं रहा माँ !
जब से तुम चली गई........