Tuesday, December 15, 2009
अचानक/ अमरजीत कौंके
एक तितली
उड़ती उड़ती आई
और आ कर
एक पत्थर पर
बैठ गई
पत्थर
अचानक खिल उठा
और
फूल बन गया.........
098142 31698
Wednesday, November 25, 2009
समुन्द्र से कहना / अमरजीत कौंके
समुन्द्र से कहना
चंद्रमा से कहना
बादलों से
और हवा से कह देना
कि आज कल मैं
बहुत उदास रहता हूँ........
शहर में जब
झुटपुटा सा अँधेरा छाने लगता है
तो मेरे भीतर
भीपत्सी शोर गूंजता है
बहुत बुरे बुरे ख्याल आते हैं
और सोच के आकाश पर
गिद्धों की तरह मंडराते हैं.....
कहना
कि मैंने रात के सीने पर
बहुत सारे ख़त लिखे हैं
जिनके विषय में
कभी कोई कुछ नहीं जान पायेगा
मेरे कमरे की
जागती दीवारों के सिवाय
टूटती नींद
डरावने स्वप्न
घटती बढ़ती दिल की धड़कन
दूर घर की याद
मेरी रातों में
टुटके बिखरे पल हैं ......
कहना
कि मैं शांत नींद चाहता हूँ
जो मुझे मुद्दत से नहीं आई
मेरी रातें डरावने सपनो में बँट गई हैं
और दिनों का रेत सड़कों पर बिखर गया है
रात और दिन पता नहीं
किस निगोड़ी नज़र का
शिकार हो गए हैं......
समुन्द्र से कहना
चंद्रमा से कहना
बादलों और हवा से कहना
कि कभी मेरे कमरे में आयें
आज कल मैं
बहुत उदास रहता हूँ.........
098142 31698
Tuesday, November 17, 2009
करामात /अमरजीत कौंके
मैं अपनी प्यास में
डूबा रेगिस्तान था.......
मुद्दत से मैं
अपनी तपिश में तपता
अपनी अग्नि में जलता
अपनी काया में सुलगता
भुला बैठा था मैं
छांव
प्यास
नीर...
भूल गए थे मुझे
ये सारे शब्द
शब्दों के सारे मायने
मेरे कण-कण ने
अपनी वीरानगी
अपनी तपिश
अपनी उदासी में
बहलना सीख लिया था
पर तेरी हथेलियों में से
प्यार की
कुछ बूँदें क्या गिरीं
कि मेरे कण-कण में
फिर से प्यास जाग उठी
जीने की प्यास
अपने अन्दर से
कुछ उगाने की प्यास
तुम्हारे प्यार की
कुछ बूँदों ने
यह क्या करामात कर दी
कि एक मरुस्थल में भी
जीने की ख्वाहिश भर दी।
098142 31698
Friday, November 6, 2009
बहुत दूर / अमरजीत कौंके
बहुत दूर
छोड़ आया हूँ मैं
वो खाँस-खाँस कर
जर्जर हुए ज़िस्म
भट्टियों की अग्नि में
लोहे के साथ ढलते शरीर
फैक्ट्रियों की घुटन में कैद
बेबसी के पुतले
मैं
बहुत दूर छोड़ आया हूँ
दूर छोड़ आया हूँ
वह पसीने की बदबू
एक-एक निवाले के लिए
लड़ा जाता युद्ध
छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए
जिबह होते अरमान
दिल में छिपी कितनी आशाएँ
होठों में दबा कितना दर्द
मैं
कितनी दूर छोड़ आया हूँ
दूर छोड़ आया हूँ
मैं वह युद्ध का मैदान
जहाँ हम सब लड़ रहे थे
रोटी की लड़ाई
अपने-अपने मोर्चों में
पर मुझे मुट्ठी भर
अनाज क्या मिला
कि मैं सबको
मोर्चों पर लड़ता छोड़ कर
दूर भाग आया हूँ
वे सब अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
अंतहीन लड़ाई
उदास
निराश
फैक्ट्रियों में
तिल-तिल मरते
सीलन भरे अँधेरों में गर्क होते
मालिक की
गन्दी गालियों से डरते
थोड़े से पैसों से
अपना बसर करते
पल पल मरते
वे सब
अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
मैं ही
बहुत दूर
भाग आया हूँ।
098142-31698
Saturday, October 31, 2009
पता नहीं / अमरजीत कौंके
पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता
पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनूँ बन जाता
पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका मात्र रह जाता
पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती
पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भांति
गिरता और सूख जाता
पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे
बहुत बड़ा तैराक
होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।
098142 31698
Tuesday, October 27, 2009
प्रश्नों की माटी / अमरजीत कौंके
कभी कभी
पता नहीं
यह कैसा मौसम आ जाता है
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.....
हवा में पत्थर उछालता
मैं किस के इंतज़ार में बैठा हूँ...?
कौन है
जो मन के देश से
जलावतन हुआ
अभी तक नहीं लौटा......?
मैं किस के इंतज़ार में हूँ....?
खामोश रात से
मैं किस जुगनू का पता पूछता हूँ...?
उदास चंद्रमा मेरे किस
गम में शरीक है......?
मेरी कविताओं में
टूटते सितारों के
प्रतिबिम्ब क्यों बनते हैं....?
यह जो मेरे भीतर
बेचैनी पैदा करती है
किस की बांसुरी की आवाज़ है...?
ठहरी रात में रेल जब गुजरती है
तो मेरे पांवों में क्यों
मचलने लगती है भटकन....?
ये सोया हुआ शहर
क्यों चाहता हूँ मैं
कि अचानक जाग पड़े......?
ये कौन
मेरे भीतर
यूँ
प्रश्नों की माटी
उड़ा जाता है.....?
मेरे अन्दर
इतना सूनापन
पता नहीं
कहाँ से आ जाता है....
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.........
098142 31698
Monday, October 26, 2009
दुखों के बिना / अमरजीत कौंके
Tuesday, October 20, 2009
काश / अमरजीत कौंके
Wednesday, October 14, 2009
मैं, वह और कवितायेँ / अमरजीत कौंके
प्यार करते करते
अचानक वह रूठ जाती
सीने मेरे पर
सर पटक के बोलती--
फिर आये हो वैसे के वैसे
मेरे लिए नयी कवितायेँ
क्यों नहीं लेकर आये
मैं कहता--
कहाँ से लाऊं मैं कविताएँ
कुछ लिखने के लिए तो दे
दे मेरी कविता के लिए हादसा
या प्यार दे
वह कहती--
मेरे पास क्या है
कवि हो तुम
तुम्हारे पास हैं शब्द सारे
मैं कहता--
क्या नहीं तुम्हारे पास
ब्रह्माण्ड है पूरा तुम्हारे भीतर
और वह
ब्रह्माण्ड बन जाती
मैं उसके भीतर उतरता
पर्वतों की चोटियो पर खेलता
लहरों से अठखेलिया करता
उसके सीने में उड़ते
परिंदों के साथ उड़ान भरता
उसके भीतर
कितनी ही धराएं
कितने गृह नक्षत्र
कितने सूरज
जुगनुओं ली भांति
जगमग करते
मैं सुरजों को घोड़ा बना कर
अनंत दिशाओं में उन्हें तेज़ दौड़ाता
आंधी बन कर
उसके भीतर उथल पुथल करता
तूफ़ान बन कर शोर मचाता
पुरे का पूरा ब्रह्माण्ड होती थी वो
उस पल
मैं उसके पास से लौटता
तो कितनी ही कवितायेँ
इठलाती
वल खाती
झूम झूम कर
मेरे साथ चलतीं ......
098142 31698
Wednesday, October 7, 2009
बेचैनी-सहजता / अमरजीत कौंके
तुमसे प्यार करने के बाद
पता चला मुझे
कि कितनी सहज
रह सकती हो तुम
और मैं कितना बेचैन
कितनी सहज
रह सकती हो तुम
घर में सदा मुस्कराती
रसोई में
कोई गीत गुनगुनाती
अच्छी बीवी के
फ़र्ज़ निभाती
ऐसे कि घर दफ्तर
कहीं भी
पता नहीं चलता
कि किसी के
प्यार में हो तुम
लेकिन मै हूँ
कि तुम्हारे न मिलने पर
खीझ उठता हूँ
बेचैन रहता हूँ
किसी खूंटे से बंधे
घोड़े कि तरह
पैरों के नीचे की
जमीन खोदता हूँ
और सारी दीवारें तोड़ कर
तुम्हारे तक आने के लिए
दौड़ता हूँ....
मेरी बेचैनी
तुम्हारी सहजता से
कितनी भिन्न है.......
Wednesday, September 16, 2009
राज़ / अमरजीत कौंके
वह हंसती तो
मोतिओं वाले घर का
दरवाज़ा खुलता
और खिलखिलाने लगती कायनात
मैं हैरान हो कर पूछता उस से
कि इस हंसी का राज़ किया है.....?
उसके चेहरे पर
पृथ्वी का संयम था
उसके माथे पर
आकाश की विशालता
सूर्य का तेज़ था
उसकी आँखों में
अपने वालों को
वो इन्द्र्ध्नुशय से यूँ बांधती
कि कायनात खिल उठती
समुंदर की तरह गहरी
उसकी आँखों में
कहीं कोई किश्ती
नहीं थी ठहरती.....
उम्र की सीढ़ी पर
मुझसे कितने ही डंडे
ऊपर खड़ी
वह औरत
संयोग के पलों में
मुझ से कितने ही वर्ष
छोटी बन जाती........
और मैं
हैरान हो कर पूछता उस से
कि इस ताजगी का
राज़ किया है..........??????
Friday, September 11, 2009
एक रात / अमरजीत कौंके
एक रात मैं निकला
खाबों की ताबीर के लिए
तो मैंने देखा
कि
शहर के हर मोड़
हर चौराहे पर
बेठे हैं कुत्ते
मोटे मोटे झबरे कुत्ते
मैं बहुत डरा
और बहुत घबराया
लेकिन फिर भी
बचता बचाता
शहर के दुसरे किनारे पर
निकल आया
तभी अचानक
एक कुत्ते ने
मुझे देखा
और
सही सलामत पाया
बस यही देख कर
उसने मुझे
काट खाया
कहने लगा -
तू कुत्तों की बस्ती में से
बच कर कैसे निकल आया....??????
Sunday, September 6, 2009
कैसे / अमरजीत कौंके
मेरी आँखों में
लोग तुम्हारी तस्वीर
पहचान लेते हैं
मेरे चेहरे से
तुम्हारी मुस्कान
मेरे पैरों से लोग
तुम्हारे घर का
रास्ता ढूंढ़ लेते हैं.....
मेरी अंगुलिओं से लोग
तुम्हारे नक्श तराशते
मेरे कानों से
तुम्हारी आवाज़ सुनते
मेरे शब्दों से लोग
तुम्हारे नाम की
कविताएँ ढूंढ़ लेते
मेरे होंठों से
तुम्हारे जिस्म की
महक पहचान लेते हैं.....
जिस्म मेरा है
पर
मेरे जिस्म में
तुम
किस किस तरह से
रहती हो......
098142 31698
Thursday, September 3, 2009
माँ और बच्चा / अमरजीत कौंके
माँ बहुत चाव से
गमले में उगाती है
मनीप्लांट
बच्चा घिसटता जाता है
तोड़ डालता है पत्ते
उखाड़ फेंकता है
छोटा सा पौधा
माँ
फिर मिटटी में बोती है
मनीप्लांट
बच्चा
फिर निकाल फेंकता है
जड़ से
फूटने पर नए पत्ते
माँ फिर हिम्मत्त नहीं छोड़ती
लेकिन बच्चा फिर जा रहा है
पौधे की तरफ लपकता
मैं देख रहा हूँ
कितने दिनों से
माँ और बच्चे की
यह मीठी खेल
देखता हूँ
कि आखिर जीतता कौन है
माँ की हिम्मत
या बच्चे कि जिद्द........?????
Tuesday, September 1, 2009
कविता / अमरजीत कौंके
Thursday, August 27, 2009
जब से तुम गई हो माँ / अमरजीत कौंके
जब से तुम
गई हो माँ !
घर तिनकों की तरह
बिखर गया है.....
तुम पेड़ थीं एक
सघन छाया से भरा
घर के आँगन में खडा
जिस के नीचे बैठ कर
सब विश्राम करते
बतिआते
एक दुसरे के
दुःख सुख में
सांझीदार बनते.....
तुम चली गई माँ !
तो वो पेड़
जड़ से उखड़ गया है
वैसे
तुम्हारे जाने के बाद
सब वैसे का वैसे है
घर की दीवारें
घर की छतें
पर बदल गए हैं
उन छतों के
नीचे रहते लोग
घर का आँगन वही है
लेकिन आँगन का
वो सघन छाया भरा
बृक्ष नहीं रहा
जिस के नीचे
बैठ कर
सभी
एक दुसरे से
बतिआते थे
अपने अपने
दुःख सुख सुनाते थे
अब वो
बृक्ष नहीं रहा माँ !
जब से तुम चली गई........
Tuesday, August 25, 2009
दैवीय स्पर्श / अमरजीत कौंके
छुआ मुझे माथे पर उसने
तो पिघल गई
मेरी सारी उदासी
पर्वतों की चोटीओं से
पिघल जाती है बर्फ जैसे
धुप के होंठ छूने पर
छुआ मुझे आँखों पर उसने
तो फट गया
युगों से
मेरी आँखों में लटकता
उदास कैलेंडर
मेरे हाथों को छुआ उसने
तो अचानक हुई मेरे भीतर
शब्दों की बारिश
और अनेक कविताएँ
मेरे ह्रदय से फूट पड़ीं
होंठों पर छुआ उसने मुझे
बहने लगे मुझ में
शीत
निर्मल
चश्मे
उसका स्पर्श
दैवीय स्पर्श था कोई
जिसने मेरे मन की
बंजर पृथ्वी में
जगा दीं
नदीआं
चश्मे
कवितायेँ
निर्जीव मिटटी था मैं
उसके छूने से पहले
उसके स्पर्श से
धड़कने लगी
मुझ में
जिंदगी...........( पुस्तक "मुठ्ठी भर रौशनी" से )
Friday, August 21, 2009
तुम्हारे जाने के बाद / अमरजीत कौंके
तुम्हारे जाने के बाद
देर तक
दीवार पर सर
पटकता रहा कैलेंडर
पंखे के परों से
देर तक झरती रही उदासी
बहुत गहरा हो गया
मेरे कमरे में
फैला सन्नाटा
अचानक
उदास हो गई
सामने दीवार पर
मुस्कराती लड़की की तस्वीर
तुम्हारे जाने के बाद
कितनी ही देर
छटपटाता रहा
मेरे मन का
बेचैन मृग
तुम्हारे
फिर मिलने के
इंतज़ार में .............
Monday, August 17, 2009
कुछ नहीं होगा / अमरजीत कौंके
सब कुछ होगा
तुम्हारे पास
एक मेरे पास होने के
अहसास के बिना
सब कुछ होगा
मेरे पास
तुम्हारी मोहब्बत भरी
एक नज़र के सिवाय
ढँक लेंगे हम
पदार्थ से
अपना आप
एक सिरे से
दुसरे सिरे तक
लेकिन
कभी
महसूस कर के देखना
कि सब कुछ
होने के बावजूद भी
कुछ नहीं होगा
हमारे पास
अपने उन
मासूम दिनों की
मोहब्बत जैसा
जब
मेरे पास
कुछ नहीं था
जब
तुम्हारे पास
कुछ नहीं था.........
Tuesday, August 11, 2009
क्यों
क्यों आती हो
तुम पास मेरे
तोड़ कर सारी दीवारें
उलांघ कर
रास्तों की वर्जित रेखाएं
मन पर
गुनाह और प्यार की
कशमकश का बोझ लिए
क्यों आती हो तुम
पास मेरे
तुम्हारे उस से क्या
अलग है मुझ में ?
मैं आती हूँ तुम्हारे पास
कि तुम्हारे छूने से
मेरी देह में सोया हुआ
संगीत जागता है
और मेरे मुर्दा अंग
अंगडाई लेते हैं
मैं
इस लिए आती हूँ
तुम्हारे पास
कि तुम्हारे पास
मैं
एक जीती जागती
सांस लेती
धड़कती
महसूस करती
जीवंत औरत होती हूँ
और अपने उस के पास
सिर्फ एक मुर्दा लाश.....
इस लिए
आती हूँ मैं
पास तुम्हारे............
Saturday, August 1, 2009
गलती
Wednesday, July 29, 2009
क्या तब भी ? / अमरजीत कौंके
क्या तब भी तुम
इसी तरह चाहोगी मुझे ?
सफ़र जब मेरे पांवों में सिमट आया
आईने को भूल गई
मेरे नक्शों की पहचान
उग आया मेरे चेहरे पर सफ़ेद जंगल
मेरी शाखाओं से तोड़ लिया जब
बहार ने रिश्ता
क्या तुम तब भी
मेरी सूखी शाखाओं पर
घोंसला बनाने का
खाब देखोगी ?
आकाश के पन्नों पर लिखा
मिट गया जब नाम मेरा
आँखों की दहलीज़ पर उतर आयीं
जब संध्या की परछाई
रौशनी जब मेरी आँखों में सिमट आई
परवाज़ मेरे पंखों को
कह गयी जब अलविदा.....
शब्द मेरा हाथ छोड़ कर
दुनिया के मेले में खो गए
मेरी कलम से
रूठ गई कविताएँ जब
क्या तब भी
तब भी
इसी तरह चाहोगी
मेरी महबूब मुझे......?
Tuesday, July 21, 2009
नदी एक साँवली सी / अमरजीत कौंके
अक्सर आती मेरे पास
नदी एक साँवली सी
हम खामोश एक दुसरे की आँखों में देखते
अनगिनत बातें करते
अनगिनत अहद
हम हँसते तो
हवाओं में किसी के चिंघाड़ने की
आवाजें सुनती
दीवारों में आँखें जाग उठती
सूरज आग उगलने लगता
वह कहती
मुझे धुप से डर लगता है
मुझे हवा से खौफ आता है
दूर ले चलो मुझे
सपनो के जामुनी देस
जहाँ ना धुप हो ना हवा
कैसे समझाता
उस सांवली नदी को मै
कि
धुप और हवा के बिना
जीना कितना कठिन होता है
कितना कठिन होता है.........
Sunday, July 19, 2009
फिश एकुएरियम / अमरजीत कौंके
उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों के
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे उस के नयनों में सपने
जब परिंदों के घर लौटने का
वक्त था
उसकी उम्र में जब आया प्यार
तो उसे
फिश एकुएरियम में
तैरती मछलिओं पर
बहुत तरस आया
फैंक दिया उसने फर्श पर
कांच का मर्तवान
मछ्लिओं को आजाद करने के लिए
तड़प तड़प कर मरी मछलिआं
फर्श पर
पानी के बगैर
वो बावरी नहीं थी जानती
कि मछलिओं को
आजाद करने के भ्रम में
उसने मछलिओं पर कितना
जुलम किया है......
०९८१४२-३१६९८
Saturday, July 18, 2009
शिला / अमरजीत कौंके
वह जो
मेरी कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई
बहुत सिमृतीओं का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हंसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आया
इस तरह यादों से परे
शिला हो गई वह
उसके एक और मैं था
सूरज के घोडे पर सवार
किसी राजकुमार की भाँति
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अंगुली पकड़ कर
अनोखे अम्बरों में
उसे घुमाता
एक और उसका घर था
जिसमे उसकी उम्र दफ़न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलांग रहे थे
एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिंधूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था
समाज के बंधन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेडिआं बनते जा रहे थे
उसे अब लगता था
कि उसके सपने
उसके संस्कार ही खा रहे थे
इन सब में इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई....................
अंतहीन दौड़ / अमरजीत कौंके
मैं रेस का घोड़ा हूँ
मुझ पर हर किसी ने
अपना अपना दांव लगाया है
किसी ने ममता
किसी ने फर्ज़
संस्कार परम्पराएं
कहीं मोहब्बत, मोह , भय
किस किस तरह का
वास्ता पाया है
अनगिनत सदिओं से
मैं दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़
दौड़ता दौड़ता कभी गिरता हूँ
उठता हूँ
और फिर दौड़ने लगता हूँ
मेरी कोई जीत मेरी नहीं
मेरी कोई हार मेरी नहीं
मेरा कुछ भी मेरा नहीं
मोह, मोहब्बत, ममता,
रिश्तों का क़र्ज़ उतारने के लिए
मैं लगातार दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़
मैं लगातार दौड़ रहा हूँ
और पीछे छूटती जा रही हैं कविताएँ..................
कुछ शब्द / अमरजीत कौंके
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