Wednesday, July 29, 2009
क्या तब भी ? / अमरजीत कौंके
क्या तब भी तुम
इसी तरह चाहोगी मुझे ?
सफ़र जब मेरे पांवों में सिमट आया
आईने को भूल गई
मेरे नक्शों की पहचान
उग आया मेरे चेहरे पर सफ़ेद जंगल
मेरी शाखाओं से तोड़ लिया जब
बहार ने रिश्ता
क्या तुम तब भी
मेरी सूखी शाखाओं पर
घोंसला बनाने का
खाब देखोगी ?
आकाश के पन्नों पर लिखा
मिट गया जब नाम मेरा
आँखों की दहलीज़ पर उतर आयीं
जब संध्या की परछाई
रौशनी जब मेरी आँखों में सिमट आई
परवाज़ मेरे पंखों को
कह गयी जब अलविदा.....
शब्द मेरा हाथ छोड़ कर
दुनिया के मेले में खो गए
मेरी कलम से
रूठ गई कविताएँ जब
क्या तब भी
तब भी
इसी तरह चाहोगी
मेरी महबूब मुझे......?
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8 comments:
thori der sath ki chaht kijiye...tmaam umar kaha koee sath deta hai...ek pal ka sath bhi boht hai umar bhar ke liye...or umar bhar ka sath bhi kum hai us ek pal ke liye....
kya kahun...........kitne gahre bhav hain aur satya ke pariprekshya mein dekhein to hakeekat ko bayan karte hain..............ab shayad kahne ko kuch bacha hi nhi .......aapne hi sab kah diya.
अमरजीत जी ,
बहुत सुन्दर रचनाएं हैं आपकी , बिलकुल जीवन के सत्य से जुडी हुई | ह्रदय के हर कोने को छू लेने वाली | बहुत प्रसन्नता हुई आपका ब्लाग देख कर |
शुभकामनायों सहित,
शशि पाधा
mannu thudi poem bhoot pasand aei ha,bahut sohna likhda ho,,,
thanks for sending the link...
Yes, tab bhee because she will also be a white jungle and she will have no other choice. Jasfiza
अपने प्रेमी/प्रियतमा से संभवतः हर कोई यह पूछना चाहता है.....नहीं?
बहुत ही भावपूर्ण सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई...
Amarjeet ji
Thanks for sharing wonderful pieces of poetry of sensitivity. You are growing day by day. Keep it up.
Sincerely
Randhir Singh New York
यह वाकई कमाल है अमरजीत जी ..मैं अब तक हैरान हूँ ....:) शुक्रिया इस ब्लॉग के लिंक देने का ..:)
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