Saturday, August 7, 2010
कविता संग निपट अकेला / अमरजीत कौंके
सुख था जितना बाँट दिया सब
दुःख था जितना मन पर झेला
मैं कविता संग निपट अकेला....
अपने आंसू रही भीगती
अपनी सूखी काया
जीवन गुज़रा मिली कहीं न
सघन बृक्ष की छाया
गहन उदासी मन पर छाये
उतरे साँझ की बेला
मैं कविता संग निपट अकेला.....
लाख दरों पर दस्तक दे दी
खुला कोई न द्वार
ख़ामोशी का गहरा सागर
कर न पाया पार
मन के आँगन अब भी लगता
स्मृतिओं का मेला
मैं कविता संग निपट अकेला....
इन नयनों ने भूले भटके
जब भी देखे सपने
कागज़ की कश्ती के जैसे
डूब गए सब अपने
रेत-घरौंदे टूटे आया
जब पानी का रेला
मैं कविता संग निपट अकेला.........
098142-31698
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10 comments:
इस गीत ने बहुत उदास कर दिया मुझे....शैल्ली
बहुत भाव पूर्ण रचना ....
लाख दरों पर दस्तक दे दी
खुला कोई न द्वार
ख़ामोशी का गहरा सागर
कर न पाया पार
मन के आँगन अब भी लगता
स्मृतिओं का मेला
मैं कविता संग निपट अकेला...
Aah!
Amarjeet ji it is a beautiful poem, I like it very much.
shelly, sangeeta ji, shama ji, surjeet ji kavita padne aur comments dene k liye bahut bahut dhanyavad......
मन के आँगन अब भी लगता
स्मृतिओं का मेला...
बहुत ही खूब....
वाह ! वाह!
जब मन आँगन में लगे यादों के मेले में हम खोने लगें तो क्या बात है....और कोई साथ हो या न हो...कोई फर्क नहीं पड़ता।
सुरजीत जी के ब्लॉग से यहां पहुंचा. कविता निपट अकेलेपन में साथ निभाती है, अक्सर भीड़ में खो जाती है. आपका साथ निभता रहे. शुभकामनाएं.
सुख था जितना बाँट दिया सब
दुःख था जितना मन पर झेला
मैं कविता संग निपट अकेला....
.............
ham bhi hain !!!!!!!
बहुत भावपूर्ण रचना है दिल की गहराई तक छू गयी। धन्यवाद।
बहुत भावपूर्ण रचना है दिल की गहराई तक छू गयी। धन्यवाद।
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