Monday, March 22, 2010
युद्धरत्त / अमरजीत कौंके
एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर
इस अँधेरे के पार मुझे
मेरी माँ का चेहरा नज़र आता है
इस अँधेरे के पार मुझे
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
दिखाई देते हैं.....
लेकिन मेरे पास कोई चिराग नहीं
जिस से मैं यह अँधेरा जला दूँ
अपनी कविताओं से
मैं वह चिराग जलाने की कोशिश में हूँ
अपने भीतर शब्दों की दीपशिखा
दहकाने की कोशिश में हूँ
यह अँधेरा शायद
मेरी ख़ामोशी का अँधेरा है
या मेरे भीतर की उदासी का नाम
मैं जो शब्दों को ढूंढने निकला था
अजनबी अर्थों में घिर गया हूँ.......
लेकिन अपनी कविताओं के सहारे
मैं ये सभी बँधन तोड़ने के लिए
यतनशील हूँ
क्यों क़ि
शीशे क़ि इस दीवार के पार
मुझे मेरी माँ का चेहरा दिखता है....
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
मुझे बुला रहे हैं.............
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8 comments:
apni kavitaon ke sahare,sabhi bandhan todne ko prayatansheel hoon
khudaa aapki yeh arzoo puri kare.
एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर
वाह अमरजीत जी, कविता की शुरुआत ही बहुत शानदार है. बधाई.
कविता यही काम करती है ।
शहीद भगत सिंह पर एक रपट यहाँ भी देखें
http://sharadakokas.blogspot.com
एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर...... बहुत शानदार
बहुत ही सम्वेदनशील कविता ! बधाई !
बहुत दिनों बाद आई आपके ब्लॉग पे .....
आपके ब्लॉग पे आकर लगता है की कुछ पढ़ा है .....'नेम प्लेट' बहुत अच्छी लगी ....
और कैसे हैं आप .....?
Beautiful lines:
...'एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर...... '
Wonderful blog.
God bless.
Dua karti hun,ki har mata pita ko aap jaisa putr mile,jo unhen itnee shiddat se mahsoos kare!
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