Tuesday, September 1, 2009

कविता / अमरजीत कौंके


तृप्त हो तुम
एक समुंदर की तरह
मैं एक प्यासा मुसाफिर
जन्म जन्मान्तर का

बार बार लौटता हूँ
पास तुम्हारे
अनंत दिशाओं में भटकता
तुझ में ढूंढ़ता हूँ
पनाह
तुम्हारे आगोश में
आ गिरता हूँ बार बार

मुझे भी कर ले
आत्मसात
अपने भीतर

मुक्त कर दे
मुझे
इस आवागमन के
चक्र से

ऐ तृप्त समुंदर!

3 comments:

shelly said...

bahut hi khubsurti se pyar ke bhavon ko abhivyakt kia gaya hai.....shelly

Urmi said...

बहुत ख़ूबसूरत और शानदार कविता लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!

दिगम्बर नासवा said...

KYA LAJAWAAB LIKHA HAI .... SAMUNDAR MEIN DOOB JAANE KI KHWAHISH ... KAMAAL KI RACHNA