Sunday, September 26, 2010
तुम्हारी देह जितना / अमरजीत कौंके
देखे बहुत मैंने
मरुस्थल तपते
सूरज से
अग्नि के बरसात होती
देखी कितनी बार
बहुत बार देखा
खौलता समुंदर
भाप बन कर उड़ता हुआ
देखे ज्वालामुखी
पृथ्वी की पथरीली तह तोड़ कर
बाहर निकलते
रेत
मिटटी
पानी
हवा
सब देखे मैंने
तपन के अंतिम छोर पर
लेकिन
तुम्हारी देह को छुआ जब
महसूस हुआ तब
कि कहीं नहीं तपन इतनी
तुम्हारी काँची देह जितनी
रेत
न मिटटी
पानी न पवन
कहीं कुछ नहीं तपता
तुम्हारी देह जितना......
098142-31698
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12 comments:
ahmiyt dene se jyada mhsoos krne ki bat me vjn hota hai jise bhut hi khoobsoorti se shbdbdhh kiya hai kvita me .
जब तलक काबे मे वह आया न था ........
बहुत अच्छी लगी रचना। बधाई।
सुंदर अभिव्यक्ति.
You have seen nature in your way....that's Great !!
come along to see Nature in my way....Visit Aseem Aasman....the sky is limitless !!!!
सुन्दर प्रेम कविता
kamaal hai ! Bahut badia kavita hai bahut badia udan hai ! Congrates !
Surjit.
Beautiful poem... thnx for letting me find this beautiful blog and if u traslate those poems in Punjabi then the pleasure will be ol mine... I too wud like to c them.. thnx a lot
बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार
Rochak...hridayasparshi.. bahut gahre se prem ko jaana h shayad..
आसक्ति की उँचाइयों को छुआ है आपने ... बहुत लाजवाब सर ....
बहुत अच्छी रचना सुंदर अभिव्यक्ति ।
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