
वह जो
मेरी कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई
बहुत सिमृतीओं का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हंसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आया
इस तरह यादों से परे
शिला हो गई वह
उसके एक और मैं था
सूरज के घोडे पर सवार
किसी राजकुमार की भाँति
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अंगुली पकड़ कर
अनोखे अम्बरों में
उसे घुमाता
एक और उसका घर था
जिसमे उसकी उम्र दफ़न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलांग रहे थे
एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिंधूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था
समाज के बंधन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेडिआं बनते जा रहे थे
उसे अब लगता था
कि उसके सपने
उसके संस्कार ही खा रहे थे
इन सब में इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई....................
7 comments:
अमरजीत जी,
बहुत बहुत बहुत ही संदर कविता है आपकी..
एक एक शब्द कमाल का लिख है,
एक ऐसी स्तिथि को उकेरती है आपकी कविता जिसे शायद लाखों ने जिया हो...
खूबसूरत अल्फाज़ और जागृत ज़ज्बात,
बहुत खूब....
लिखते रहिये
हम आते रहेंगे..
jeevan ki bahut talakh haqikat ko bian kar dia aapne.....shelly
Sundar abhivyakti.
sandhya ji , adaa ji, shelly...apka bahut dhanyavaad
aapki rachnayein bahut hi saral shabdon mein bahut hi gahri chot karti hain.............sach bahut dinon baad kuch hatkar magar sab kuch aas pass ghatit hota ho jaise .........aisa padhne ko mila..........keep it up.
"उसके सपने
उसके संस्कार ही खा रहे थे"............kya kahoon iss rachnaa par...bas ubarnaa mushkil hai iss se.....
Behad sundar rachana...padhte hue laga,jaise, chand drushy aankhonke samne se guzar rahe hon..
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