Tuesday, August 25, 2009
दैवीय स्पर्श / अमरजीत कौंके
छुआ मुझे माथे पर उसने
तो पिघल गई
मेरी सारी उदासी
पर्वतों की चोटीओं से
पिघल जाती है बर्फ जैसे
धुप के होंठ छूने पर
छुआ मुझे आँखों पर उसने
तो फट गया
युगों से
मेरी आँखों में लटकता
उदास कैलेंडर
मेरे हाथों को छुआ उसने
तो अचानक हुई मेरे भीतर
शब्दों की बारिश
और अनेक कविताएँ
मेरे ह्रदय से फूट पड़ीं
होंठों पर छुआ उसने मुझे
बहने लगे मुझ में
शीत
निर्मल
चश्मे
उसका स्पर्श
दैवीय स्पर्श था कोई
जिसने मेरे मन की
बंजर पृथ्वी में
जगा दीं
नदीआं
चश्मे
कवितायेँ
निर्जीव मिटटी था मैं
उसके छूने से पहले
उसके स्पर्श से
धड़कने लगी
मुझ में
जिंदगी...........( पुस्तक "मुठ्ठी भर रौशनी" से )
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8 comments:
फिर एक अनूठी रचना..!
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बहुत सुन्दर रचना है अमरजीत जी।बधाई।
आपकी रचनाये भी इतनी खुब्सूरत है कि ब्यान करने के लिये शब्द कम पड रहे है ........दैविय स्पर्श अपने आप मे अनुपम रचना का एहसास दिला रहा है .....बधाई
हमेशा की तरह लाजवाब रचना! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई !
waah....adbhut........bahut hi badhiya likha ........gahan anubhuti.
SACHMUCH KAI SPARSH AISE HI HOTE HAI....JIN SE PATHAR BHI DHADKNE LAGTE HAIN......SHELLY KAKKAR
jb se tum gyi ho man!
aik mermsprshi rachna !!!!!!!
badhai..........
माँ को बहुत खूब परिभाषित किया है आपने अमरजीत जी सच है की माँ रुपी वृक्ष के चले जाने के बाद ही उसकी छाया का अहसास होता है...
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