
कभी कभी
पता नहीं
यह कैसा मौसम आ जाता है
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.....
हवा में पत्थर उछालता
मैं किस के इंतज़ार में बैठा हूँ...?
कौन है
जो मन के देश से
जलावतन हुआ
अभी तक नहीं लौटा......?
मैं किस के इंतज़ार में हूँ....?
खामोश रात से
मैं किस जुगनू का पता पूछता हूँ...?
उदास चंद्रमा मेरे किस
गम में शरीक है......?
मेरी कविताओं में
टूटते सितारों के
प्रतिबिम्ब क्यों बनते हैं....?
यह जो मेरे भीतर
बेचैनी पैदा करती है
किस की बांसुरी की आवाज़ है...?
ठहरी रात में रेल जब गुजरती है
तो मेरे पांवों में क्यों
मचलने लगती है भटकन....?
ये सोया हुआ शहर
क्यों चाहता हूँ मैं
कि अचानक जाग पड़े......?
ये कौन
मेरे भीतर
यूँ
प्रश्नों की माटी
उड़ा जाता है.....?
मेरे अन्दर
इतना सूनापन
पता नहीं
कहाँ से आ जाता है....
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.........
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