Monday, December 2, 2019

प्रतिमान : अक्टूबर- दिसंबर : 2019, सम्पादक : डा. अमरजीत कौंके, पटियाला

प्रतिमान : अक्टूबर- दिसंबर : 2019

सम्पादक : डा. अमरजीत कौंके, पटियाला

Friday, May 12, 2017

डा. अमरजीत कौंके को साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार 2016

डा. अमरजीत कौंके को साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार 2016
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साहित्य अकादमी, दिल्ली की और से पंजाबी के कवि, संपादक और अनुवादक डा. अमरजीत कौंके को वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार देने की घोषणा की गई है. अमरजीत कौंके को यह पुरस्कार पवन करन की पुस्तक " स्त्री मेरे भीतर " के पंजाबी अनुवाद " औरत मेरे अंदर " के लिए प्रदान किया जाएगा. अमरजीत कौंके पंजाबी और हिन्दी साहित्य में जाने पहचाने कवि हैं. उनके 7 काव्य संग्रह पंजाबी में और 4 काव्य संग्रह हिंदी में प्रकाशित हो चुके हैं.अनुवाद के क्षेत्र में अमरजीत कौंके ने डा. केदारनाथ सिंह, नरेश मेहता, अरुण कमल, कुंवर नारायण, हिमांशु जोशी, मिथिलेश्वर, बिपन चंद्रा सहित 14 पुस्तकों का हिंदी से पंजाबी तथा वंजारा बेदी, रविंदर रवि, डा.रविंदर , सुखविंदर कम्बोज, बीबा बलवंत, दर्शन बुलंदवी, सुरिंदर सोहल सहित 9 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद किया है. बच्चों के लिए भी उनकी 5 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.अमरजीत कौंके एक साहित्यक पत्रिका " प्रतिमान " के संपादक भी हैं जिसे वह 13 साल से लगातार निकल रहे हैं. अमरजीत ने पंजाबी और दूसरी भाषाओँ के अनुवाद से साहित्य के आदान प्रदान में एक पुल का काम किया है.साहित्य अकादमी के इस पुरस्कार के चयन के लिए गठित कमेटी में डा. जसविंदर सिंह, डा. जोध सिंह तथा डा.गुरपाल सिंह संधू शामिल थे. यह पुरस्कार साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित एक समागम में प्रदान किया जाएगा.इस सम्मान में 50,000 रूपए की राशि और सम्मान पत्र और चिन्ह शामिल हैं.








Thursday, December 8, 2011

मुठ्ठी भर रौशनी / अमरजीत कौंके



सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ अभी

शेष है अब भी
मुठ्ठी भर रौशनी
इस तमाम अँधेरे के खिलाफ

खेतों में अभी भी लहलहाती हैं फसलें
पृथ्वी की कोख तैयार है अब भी
बीज को पौधा बनाने के लिए..

किसानों के होठों पर
अभी भी लोक गीतों की ध्वनियाँ नृत्य करती हैं
फूलों में लगी है
एक दुसरे से ज्यादा
सुगन्धित होने की जिद
इस बारूद की गंध के खिलाफ

शब्द अपनी हत्या के बावजूद
अभी भी सुरक्षित हैं
कविताओं में

और इतना काफी है......

098142 31698

Friday, June 17, 2011

कुछ नहीं होगा / अमरजीत कौंके




कुछ नहीं होगा / अमरजीत कौंके

सब कुछ होगा तुम्हारे पास
एक मेरे पास होने के अहसास के बिना

सब कुछ होगा मेरे पास
तुम्हारी मोहब्बत भरी
इक नज़र के सिवा

ढँक लेंगे हम
पदार्थ से खुद को
इक सिरे से दुसरे सिरे तक

लेकिन कभी
महसूस कर के देखना
कि सब कुछ होने के बावजूद
कुछ नहीं होगा हमारे पास
उन पवित्र दिनों की मोहब्बत जैसा

जब मेरे पास कुछ नहीं था
जब तुम्हारे पास कुछ नहीं था.......

Friday, November 5, 2010

ख़ुशी / अमरजीत कौंके


ख़ुशी / अमरजीत कौंके

तुम खुश होती हो
मेरा गरूर टूटता देख कर

मुझे हारता हुआ देख
तुम्हें अत्यंत ख़ुशी होती है

मैं खुश होता हूँ
तुम्हें खुश देख कर

तुम्हें जीतता
देखने की ख़ुशी में
मैं
हर बार
हार जाता हूँ........

Saturday, October 16, 2010

मछलियाँ / अमरजीत कौंके




उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों की
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे
उसके नयनों में सपने
जब परिंदों के
घर लौटने का वक्त था

उसकी उम्र में
जब आया प्यार
तो उसे
फिश एकुएरियम में
तैरती मछलियों पर बहुत
तरस आया
फैंक दिया उसने
काँच का मर्तबान
फर्श पर
मछलियों को
आज़ाद करने के लिए

लेकिन
तड़प तड़प कर
मर गईं मछलियाँ
फर्श पर
पानी के बगैर

नहीं जानती थी
वह बावरी
कि
मछलियों को
आज़ाद करने के भ्रम में
उसने मछलियों पर
कितना जुलम किया है.....


Sunday, September 26, 2010

तुम्हारी देह जितना / अमरजीत कौंके



देखे बहुत मैंने
मरुस्थल तपते
सूरज से
अग्नि के बरसात होती
देखी कितनी बार
बहुत बार देखा
खौलता समुंदर
भाप बन कर उड़ता हुआ
देखे ज्वालामुखी
पृथ्वी की पथरीली तह तोड़ कर
बाहर निकलते

रेत
मिटटी
पानी
हवा
सब देखे मैंने
तपन के अंतिम छोर पर

लेकिन
तुम्हारी देह को छुआ जब
महसूस हुआ तब
कि कहीं नहीं तपन इतनी
तुम्हारी काँची देह जितनी

रेत
न मिटटी
पानी न पवन
कहीं कुछ नहीं तपता

तुम्हारी देह जितना......

098142-31698

Saturday, August 7, 2010

कविता संग निपट अकेला / अमरजीत कौंके



सुख था जितना बाँट दिया सब
दुःख था जितना मन पर झेला
मैं कविता संग निपट अकेला....

अपने आंसू रही भीगती
अपनी सूखी काया
जीवन गुज़रा मिली कहीं न
सघन बृक्ष की छाया
गहन उदासी मन पर छाये
उतरे साँझ की बेला
मैं कविता संग निपट अकेला.....

लाख दरों पर दस्तक दे दी
खुला कोई न द्वार
ख़ामोशी का गहरा सागर
कर न पाया पार
मन के आँगन अब भी लगता
स्मृतिओं का मेला
मैं कविता संग निपट अकेला....

इन नयनों ने भूले भटके
जब भी देखे सपने
कागज़ की कश्ती के जैसे
डूब गए सब अपने
रेत-घरौंदे टूटे आया
जब पानी का रेला
मैं कविता संग निपट अकेला.........

098142-31698

Tuesday, June 22, 2010

दुखों भरी संध्या / अमरजीत कौंके



जितनी देर दोस्त थे
कितनी सहज थी जिन्दगी
ना तुम औरत थी
ना मै मर्द
एक दुसरे का दर्द
समझने की कोशिश करते.....

अचानक
पता नहीं क्या हादिसा हुआ
जिस्म से जिस्म छुआ
हम बँट गए
औरत और मर्द में
मोहब्बत की ख़ुशी में
प्यार के दर्द में

अब मिलते हैं
तो सहज नहीं
दिलों में चोर है
मिलते तो खुश होते
विछुड़ते तो कायनात की उदासी
नयनों में भर के
सड़कों चौराहों से डर के
कितने गुनाह कर के

लेकिन
मेरी दोस्त
फिर भी यूँ नहीं लगता
कि विछुड़ने की यह
दुःख भरी संध्या
कितनी प्यारी है...

उदासी है चाहे जानलेवा
लेकिन दुनिया की
सब खुशिओं पर भारी है............

Friday, May 28, 2010

पवन करण की पुस्तक "स्त्री मेरे भीतर" का पंजाबी अनुवाद "औरत मेरे अन्दर"


अनुवादक- अमरजीत कौंके
प्रकाशक - प्रतीक प्रकाशन, पटिआला
मूल्य-६०/- , पन्ने-८०
सम्पर्क-०९८१४२ ३१६९८
EMAIL- amarjeet kaunke@gmail.com

Saturday, May 15, 2010

लड़की / अमरजीत कौंके



बचपन से यौवन का
पुल पार करती
कैसे गौरैया की तरह
चहकती है लड़की

घर में दबे पाँव चलती
भूख से बेखबर
पिता की गरीबी से अन्जान
स्कूल में बच्चों के
नए नए नाम रखती
गौरैया लगती है लड़की
अभी उड़ने के लिए पर तौलती

और दो चार वर्षों में
लाल चुनरी में लिपटी
सखिओं के झुण्ड में छिपी
ससुराल में जाएगी लड़की

क्या कायम रह पायेगी
उसकी यह तितलिओं सी शोखी
यह गुलाबी मुस्कान
गृहस्थ की तमाम कठिनाइयों के बीच
बचा के रख पायेगी क्या
वह अपनी सारी मासूमियत

कैसे बेखबर आने वाले वर्षों से
गोरैया की तरह
चहकती है लड़की.........

098142 31698

Monday, March 22, 2010

युद्धरत्त / अमरजीत कौंके



एक न एक दिन
चीर दूंगा
यह अँधेरे की चादर
बस यही सोच कर मैं
युद्धरत्त हूँ निरंतर

इस अँधेरे के पार मुझे
मेरी माँ का चेहरा नज़र आता है
इस अँधेरे के पार मुझे
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
दिखाई देते हैं.....

लेकिन मेरे पास कोई चिराग नहीं
जिस से मैं यह अँधेरा जला दूँ

अपनी कविताओं से
मैं वह चिराग जलाने की कोशिश में हूँ
अपने भीतर शब्दों की दीपशिखा
दहकाने की कोशिश में हूँ

यह अँधेरा शायद
मेरी ख़ामोशी का अँधेरा है
या मेरे भीतर की उदासी का नाम
मैं जो शब्दों को ढूंढने निकला था
अजनबी अर्थों में घिर गया हूँ.......

लेकिन अपनी कविताओं के सहारे
मैं ये सभी बँधन तोड़ने के लिए
यतनशील हूँ

क्यों क़ि
शीशे क़ि इस दीवार के पार
मुझे मेरी माँ का चेहरा दिखता है....
मेरे पिता के झुक रहे काँधे
मुझे बुला रहे हैं.............

Wednesday, March 10, 2010

नेम प्लेट / अमरजीत कौंके



तमन्ना थी उसकी
कि इक नेम प्लेट हो अपनी
जिस पर लिखे हों
हम दोनों के नाम

मैंने कहा-
नेम प्लेट के लिए
एक दीवार चाहिए
दीवार के लिए घर
घर के लिए
तुम और मैं
तुम और मैं और बच्चे

बच्चे....

बच्चे कह कर
उसने नज़रें चुरा लीं
और दूर आकाश में देखने लगी

जैसे तलाश रही हो...

घर

बच्चे

और

नेम प्लेट ...............

Monday, January 18, 2010

पर्स / अमरजीत कौंके



जादू की पिटारी लगता है
मुझे पर्स उसका
जिस में से अचानक
निकल आता है सब कुछ
जरुरत के मुताबिक

बरसात के दिनों में छतरी
भूख से समय रोटी का डिब्बा
लिपस्टिक, बिन्दिओं के पत्ते
बस की पुरानी टिकटें
बच्चे की फीस की रसीद
कितना कुछ छिपा पड़ा है
उसके पर्स में

कितना कुछ है
उस के पर्स में
कितने टूटे हुए स्वप्न
कितने अधूरे ख्वाब
कितनी दबी हुई ख्वाहिशें
एक बेचैन कवि की
कविताओं की किताब

लगता है मुझे
क़ि किसी दिन सहज ही
अपने पर्स से
निकाल लेगी वह
चाँद, सूरज और सितारे
दरिया, नदिया
और समुन्दर खारे

लगती है बात
चाहे यह असंभव सी
लेकिन अपने पर्स के भीतर से
एक दिन निकाल लेगी
वह सारा कुछ.........

Tuesday, December 15, 2009

अचानक/ अमरजीत कौंके



एक तितली
उड़ती उड़ती आई
और आ कर
एक पत्थर पर
बैठ गई

पत्थर
अचानक खिल उठा
और
फूल बन गया.........

098142 31698

Wednesday, November 25, 2009

समुन्द्र से कहना / अमरजीत कौंके



समुन्द्र से कहना
चंद्रमा से कहना
बादलों से
और हवा से कह देना
कि आज कल मैं
बहुत उदास रहता हूँ........

शहर में जब
झुटपुटा सा अँधेरा छाने लगता है
तो मेरे भीतर
भीपत्सी शोर गूंजता है
बहुत बुरे बुरे ख्याल आते हैं
और सोच के आकाश पर
गिद्धों की तरह मंडराते हैं.....

कहना
कि मैंने रात के सीने पर
बहुत सारे ख़त लिखे हैं
जिनके विषय में
कभी कोई कुछ नहीं जान पायेगा
मेरे कमरे की
जागती दीवारों के सिवाय
टूटती नींद
डरावने स्वप्न
घटती बढ़ती दिल की धड़कन
दूर घर की याद
मेरी रातों में
टुटके बिखरे पल हैं ......

कहना
कि मैं शांत नींद चाहता हूँ
जो मुझे मुद्दत से नहीं आई
मेरी रातें डरावने सपनो में बँट गई हैं
और दिनों का रेत सड़कों पर बिखर गया है
रात और दिन पता नहीं
किस निगोड़ी नज़र का
शिकार हो गए हैं......

समुन्द्र से कहना
चंद्रमा से कहना
बादलों और हवा से कहना
कि कभी मेरे कमरे में आयें

आज कल मैं
बहुत उदास रहता हूँ.........

098142 31698

Tuesday, November 17, 2009

करामात /अमरजीत कौंके



मैं अपनी प्यास में
डूबा रेगिस्तान था.......

मुद्दत से मैं
अपनी तपिश में तपता
अपनी अग्नि में जलता
अपनी काया में सुलगता

भुला बैठा था मैं
छांव
प्यास
नीर...

भूल गए थे मुझे
ये सारे शब्द
शब्दों के सारे मायने
मेरे कण-कण ने
अपनी वीरानगी
अपनी तपिश
अपनी उदासी में
बहलना सीख लिया था

पर तेरी हथेलियों में से
प्यार की
कुछ बूँदें क्या गिरीं
कि मेरे कण-कण में
फिर से प्यास जाग उठी

जीने की प्यास
अपने अन्दर से
कुछ उगाने की प्यास

तुम्हारे प्यार की
कुछ बूँदों ने
यह क्या करामात कर दी
कि एक मरुस्थल में भी
जीने की ख्वाहिश भर दी।

098142 31698

Friday, November 6, 2009

बहुत दूर / अमरजीत कौंके



बहुत दूर
छोड़ आया हूँ मैं
वो खाँस-खाँस कर
जर्जर हुए ज़िस्म
भट्टियों की अग्नि में
लोहे के साथ ढलते शरीर
फैक्ट्रियों की घुटन में कैद
बेबसी के पुतले
मैं
बहुत दूर छोड़ आया हूँ

दूर छोड़ आया हूँ
वह पसीने की बदबू
एक-एक निवाले के लिए
लड़ा जाता युद्ध
छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए
जिबह होते अरमान
दिल में छिपी कितनी आशाएँ
होठों में दबा कितना दर्द
मैं
कितनी दूर छोड़ आया हूँ

दूर छोड़ आया हूँ
मैं वह युद्ध का मैदान
जहाँ हम सब लड़ रहे थे
रोटी की लड़ाई
अपने-अपने मोर्चों में

पर मुझे मुट्ठी भर
अनाज क्या मिला
कि मैं सबको
मोर्चों पर लड़ता छोड़ कर
दूर भाग आया हूँ

वे सब अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं
अंतहीन लड़ाई
उदास
निराश
फैक्ट्रियों में
तिल-तिल मरते
सीलन भरे अँधेरों में गर्क होते
मालिक की
गन्दी गालियों से डरते
थोड़े से पैसों से
अपना बसर करते
पल पल मरते

वे सब
अभी भी
वैसे ही लड़ रहे हैं

मैं ही
बहुत दूर
भाग आया हूँ।

098142-31698

Saturday, October 31, 2009

पता नहीं / अमरजीत कौंके



पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता

पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनूँ बन जाता

पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका मात्र रह जाता

पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती

पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भांति
गिरता और सूख जाता

पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे
बहुत बड़ा तैराक
होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।
098142 31698

Tuesday, October 27, 2009

प्रश्नों की माटी / अमरजीत कौंके




कभी कभी
पता नहीं
यह कैसा मौसम आ जाता है
कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.....

हवा में पत्थर उछालता
मैं किस के इंतज़ार में बैठा हूँ...?

कौन है
जो मन के देश से
जलावतन हुआ
अभी तक नहीं लौटा......?

मैं किस के इंतज़ार में हूँ....?

खामोश रात से
मैं किस जुगनू का पता पूछता हूँ...?

उदास चंद्रमा मेरे किस
गम में शरीक है......?

मेरी कविताओं में
टूटते सितारों के
प्रतिबिम्ब क्यों बनते हैं....?

यह जो मेरे भीतर
बेचैनी पैदा करती है
किस की बांसुरी की आवाज़ है...?

ठहरी रात में रेल जब गुजरती है
तो मेरे पांवों में क्यों
मचलने लगती है भटकन....?

ये सोया हुआ शहर
क्यों चाहता हूँ मैं
कि अचानक जाग पड़े......?

ये कौन
मेरे भीतर
यूँ
प्रश्नों की माटी
उड़ा जाता है.....?

मेरे अन्दर
इतना सूनापन
पता नहीं
कहाँ से आ जाता है....

कि रेल के गुज़र जाने के बाद
प्लेटफार्म का सारा सन्नाटा
मेरे भीतर समा जाता है.........

098142 31698

Monday, October 26, 2009

दुखों के बिना / अमरजीत कौंके




दुःख था
अंत की थी भूख
लेकिन मै
खुश हो जाया करता था
कविताएँ लिख कर......

अब
ख़ुशी चहचहाती
सुबह हंसती
शाम गाती
लेकिन
मै
अंत का उदास

कई बार
दुखों के बिना भी
दुखी हो जाता है आदमी.....

098142 31698

Tuesday, October 20, 2009

काश / अमरजीत कौंके



मेरा प्यार
तुम पर
इस तरह बरसता है
जैसे किसी पत्थर के ऊपर
लगातार
पानी का कोई
झरना गिरता है......
.........
........
........

काश !
तुम्हे कभी
किसी बृक्ष की भांति
बारिश में भीगने की
कला आ जाये .........

Wednesday, October 14, 2009

मैं, वह और कवितायेँ / अमरजीत कौंके




प्यार करते करते
अचानक वह रूठ जाती
सीने मेरे पर
सर पटक के बोलती--
फिर आये हो वैसे के वैसे
मेरे लिए नयी कवितायेँ
क्यों नहीं लेकर आये

मैं कहता--
कहाँ से लाऊं मैं कविताएँ
कुछ लिखने के लिए तो दे
दे मेरी कविता के लिए हादसा
या प्यार दे

वह कहती--
मेरे पास क्या है
कवि हो तुम
तुम्हारे पास हैं शब्द सारे

मैं कहता--
क्या नहीं तुम्हारे पास
ब्रह्माण्ड है पूरा तुम्हारे भीतर


और वह
ब्रह्माण्ड बन जाती

मैं उसके भीतर उतरता
पर्वतों की चोटियो पर खेलता
लहरों से अठखेलिया करता
उसके सीने में उड़ते
परिंदों के साथ उड़ान भरता

उसके भीतर
कितनी ही धराएं
कितने गृह नक्षत्र
कितने सूरज
जुगनुओं ली भांति
जगमग करते

मैं सुरजों को घोड़ा बना कर
अनंत दिशाओं में उन्हें तेज़ दौड़ाता
आंधी बन कर
उसके भीतर उथल पुथल करता
तूफ़ान बन कर शोर मचाता

पुरे का पूरा ब्रह्माण्ड होती थी वो
उस पल

मैं उसके पास से लौटता
तो कितनी ही कवितायेँ
इठलाती
वल खाती
झूम झूम कर
मेरे साथ चलतीं ......


098142 31698

Wednesday, October 7, 2009

बेचैनी-सहजता / अमरजीत कौंके




तुमसे प्यार करने के बाद
पता चला मुझे
कि कितनी सहज
रह सकती हो तुम
और मैं कितना बेचैन

कितनी सहज
रह सकती हो तुम
घर में सदा मुस्कराती
रसोई में
कोई गीत गुनगुनाती
अच्छी बीवी के
फ़र्ज़ निभाती
ऐसे कि घर दफ्तर
कहीं भी
पता नहीं चलता
कि किसी के
प्यार में हो तुम

लेकिन मै हूँ
कि तुम्हारे न मिलने पर
खीझ उठता हूँ
बेचैन रहता हूँ
किसी खूंटे से बंधे
घोड़े कि तरह
पैरों के नीचे की
जमीन खोदता हूँ
और सारी दीवारें तोड़ कर
तुम्हारे तक आने के लिए
दौड़ता हूँ....

मेरी बेचैनी
तुम्हारी सहजता से
कितनी भिन्न है.......

Wednesday, September 16, 2009

राज़ / अमरजीत कौंके



वह हंसती तो
मोतिओं वाले घर का
दरवाज़ा खुलता
और खिलखिलाने लगती कायनात
मैं हैरान हो कर पूछता उस से
कि इस हंसी का राज़ किया है.....?

उसके चेहरे पर
पृथ्वी का संयम था
उसके माथे पर
आकाश की विशालता
सूर्य का तेज़ था
उसकी आँखों में
अपने वालों को
वो इन्द्र्ध्नुशय से यूँ बांधती
कि कायनात खिल उठती
समुंदर की तरह गहरी
उसकी आँखों में
कहीं कोई किश्ती
नहीं थी ठहरती.....

उम्र की सीढ़ी पर
मुझसे कितने ही डंडे
ऊपर खड़ी
वह औरत
संयोग के पलों में
मुझ से कितने ही वर्ष
छोटी बन जाती........

और मैं
हैरान हो कर पूछता उस से

कि इस ताजगी का
राज़ किया है..........??????

Friday, September 11, 2009

एक रात / अमरजीत कौंके



एक रात मैं निकला
खाबों की ताबीर के लिए
तो मैंने देखा
कि
शहर के हर मोड़
हर चौराहे पर
बेठे हैं कुत्ते
मोटे मोटे झबरे कुत्ते

मैं बहुत डरा
और बहुत घबराया
लेकिन फिर भी
बचता बचाता
शहर के दुसरे किनारे पर
निकल आया

तभी अचानक
एक कुत्ते ने
मुझे देखा
और
सही सलामत पाया
बस यही देख कर
उसने मुझे
काट खाया

कहने लगा -

तू कुत्तों की बस्ती में से
बच कर कैसे निकल आया....??????

Sunday, September 6, 2009

कैसे / अमरजीत कौंके



मेरी आँखों में
लोग तुम्हारी तस्वीर
पहचान लेते हैं
मेरे चेहरे से
तुम्हारी मुस्कान
मेरे पैरों से लोग
तुम्हारे घर का
रास्ता ढूंढ़ लेते हैं.....

मेरी अंगुलिओं से लोग
तुम्हारे नक्श तराशते
मेरे कानों से
तुम्हारी आवाज़ सुनते
मेरे शब्दों से लोग
तुम्हारे नाम की
कविताएँ ढूंढ़ लेते
मेरे होंठों से
तुम्हारे जिस्म की
महक पहचान लेते हैं.....

जिस्म मेरा है
पर
मेरे जिस्म में
तुम
किस किस तरह से
रहती हो......
098142 31698

Thursday, September 3, 2009

माँ और बच्चा / अमरजीत कौंके



माँ बहुत चाव से
गमले में उगाती है
मनीप्लांट

बच्चा घिसटता जाता है
तोड़ डालता है पत्ते
उखाड़ फेंकता है
छोटा सा पौधा

माँ
फिर मिटटी में बोती है
मनीप्लांट
बच्चा
फिर निकाल फेंकता है
जड़ से
फूटने पर नए पत्ते

माँ फिर हिम्मत्त नहीं छोड़ती
लेकिन बच्चा फिर जा रहा है
पौधे की तरफ लपकता

मैं देख रहा हूँ
कितने दिनों से
माँ और बच्चे की
यह मीठी खेल

देखता हूँ
कि आखिर जीतता कौन है

माँ की हिम्मत
या बच्चे कि जिद्द........?????

Tuesday, September 1, 2009

कविता / अमरजीत कौंके


तृप्त हो तुम
एक समुंदर की तरह
मैं एक प्यासा मुसाफिर
जन्म जन्मान्तर का

बार बार लौटता हूँ
पास तुम्हारे
अनंत दिशाओं में भटकता
तुझ में ढूंढ़ता हूँ
पनाह
तुम्हारे आगोश में
आ गिरता हूँ बार बार

मुझे भी कर ले
आत्मसात
अपने भीतर

मुक्त कर दे
मुझे
इस आवागमन के
चक्र से

ऐ तृप्त समुंदर!

Thursday, August 27, 2009

जब से तुम गई हो माँ / अमरजीत कौंके


जब से तुम
गई हो माँ !
घर तिनकों की तरह
बिखर गया है.....

तुम पेड़ थीं एक
सघन छाया से भरा
घर के आँगन में खडा
जिस के नीचे बैठ कर
सब विश्राम करते
बतिआते
एक दुसरे के
दुःख सुख में
सांझीदार बनते.....

तुम चली गई माँ !
तो वो पेड़
जड़ से उखड़ गया है

वैसे
तुम्हारे जाने के बाद
सब वैसे का वैसे है
घर की दीवारें
घर की छतें
पर बदल गए हैं
उन छतों के
नीचे रहते लोग

घर का आँगन वही है
लेकिन आँगन का
वो सघन छाया भरा
बृक्ष नहीं रहा
जिस के नीचे
बैठ कर
सभी
एक दुसरे से
बतिआते थे
अपने अपने
दुःख सुख सुनाते थे

अब वो
बृक्ष नहीं रहा माँ !

जब से तुम चली गई........

Tuesday, August 25, 2009

दैवीय स्पर्श / अमरजीत कौंके




छुआ मुझे माथे पर उसने
तो पिघल गई
मेरी सारी उदासी
पर्वतों की चोटीओं से
पिघल जाती है बर्फ जैसे
धुप के होंठ छूने पर

छुआ मुझे आँखों पर उसने
तो फट गया
युगों से
मेरी आँखों में लटकता
उदास कैलेंडर

मेरे हाथों को छुआ उसने
तो अचानक हुई मेरे भीतर
शब्दों की बारिश
और अनेक कविताएँ
मेरे ह्रदय से फूट पड़ीं

होंठों पर छुआ उसने मुझे
बहने लगे मुझ में
शीत
निर्मल
चश्मे

उसका स्पर्श
दैवीय स्पर्श था कोई
जिसने मेरे मन की
बंजर पृथ्वी में
जगा दीं
नदीआं
चश्मे
कवितायेँ

निर्जीव मिटटी था मैं
उसके छूने से पहले

उसके स्पर्श से
धड़कने लगी
मुझ में
जिंदगी...........( पुस्तक "मुठ्ठी भर रौशनी" से )

Friday, August 21, 2009

तुम्हारे जाने के बाद / अमरजीत कौंके






तुम्हारे जाने के बाद
देर तक
दीवार पर सर
पटकता रहा कैलेंडर

पंखे के परों से
देर तक झरती रही उदासी

बहुत गहरा हो गया
मेरे कमरे में
फैला सन्नाटा

अचानक
उदास हो गई
सामने दीवार पर
मुस्कराती लड़की की तस्वीर

तुम्हारे जाने के बाद
कितनी ही देर
छटपटाता रहा
मेरे मन का
बेचैन मृग

तुम्हारे
फिर मिलने के
इंतज़ार में .............

Monday, August 17, 2009

कुछ नहीं होगा / अमरजीत कौंके


सब कुछ होगा
तुम्हारे पास
एक मेरे पास होने के
अहसास के बिना

सब कुछ होगा
मेरे पास
तुम्हारी मोहब्बत भरी
एक नज़र के सिवाय

ढँक लेंगे हम
पदार्थ से
अपना आप
एक सिरे से
दुसरे सिरे तक

लेकिन
कभी
महसूस कर के देखना
कि सब कुछ
होने के बावजूद भी
कुछ नहीं होगा
हमारे पास
अपने उन
मासूम दिनों की
मोहब्बत जैसा

जब
मेरे पास
कुछ नहीं था

जब
तुम्हारे पास
कुछ नहीं था.........

Tuesday, August 11, 2009

क्यों


क्यों आती हो
तुम पास मेरे
तोड़ कर सारी दीवारें
उलांघ कर
रास्तों की वर्जित रेखाएं
मन पर
गुनाह और प्यार की
कशमकश का बोझ लिए
क्यों आती हो तुम
पास मेरे

तुम्हारे उस से क्या
अलग है मुझ में ?


मैं आती हूँ तुम्हारे पास
कि तुम्हारे छूने से
मेरी देह में सोया हुआ
संगीत जागता है
और मेरे मुर्दा अंग
अंगडाई लेते हैं

मैं
इस लिए आती हूँ
तुम्हारे पास
कि तुम्हारे पास
मैं
एक जीती जागती
सांस लेती
धड़कती
महसूस करती
जीवंत औरत होती हूँ

और अपने उस के पास
सिर्फ एक मुर्दा लाश.....

इस लिए
आती हूँ मैं
पास तुम्हारे............

Saturday, August 1, 2009

गलती



तुम
मेरे हाथ की रेखा थी
खुदा ने
गलती से
किसी और के
हाथ पे खींच दी

खुदा की
इस गलती की सजा
पता नहीं हम

कितने जनम
और भुगतें...........

Wednesday, July 29, 2009

क्या तब भी ? / अमरजीत कौंके


क्या तब भी तुम
इसी तरह चाहोगी मुझे ?

सफ़र जब मेरे पांवों में सिमट आया
आईने को भूल गई
मेरे नक्शों की पहचान
उग आया मेरे चेहरे पर सफ़ेद जंगल
मेरी शाखाओं से तोड़ लिया जब
बहार ने रिश्ता
क्या तुम तब भी
मेरी सूखी शाखाओं पर
घोंसला बनाने का
खाब देखोगी ?

आकाश के पन्नों पर लिखा
मिट गया जब नाम मेरा
आँखों की दहलीज़ पर उतर आयीं
जब संध्या की परछाई
रौशनी जब मेरी आँखों में सिमट आई
परवाज़ मेरे पंखों को
कह गयी जब अलविदा.....

शब्द मेरा हाथ छोड़ कर
दुनिया के मेले में खो गए
मेरी कलम से
रूठ गई कविताएँ जब

क्या तब भी

तब भी
इसी तरह चाहोगी
मेरी महबूब मुझे......?

Tuesday, July 21, 2009

नदी एक साँवली सी / अमरजीत कौंके


अक्सर आती मेरे पास
नदी एक साँवली सी
हम खामोश एक दुसरे की आँखों में देखते
अनगिनत बातें करते
अनगिनत अहद

हम हँसते तो
हवाओं में किसी के चिंघाड़ने की
आवाजें सुनती
दीवारों में आँखें जाग उठती
सूरज आग उगलने लगता

वह कहती
मुझे धुप से डर लगता है
मुझे हवा से खौफ आता है
दूर ले चलो मुझे
सपनो के जामुनी देस
जहाँ ना धुप हो ना हवा

कैसे समझाता
उस सांवली नदी को मै

कि
धुप और हवा के बिना
जीना कितना कठिन होता है
कितना कठिन होता है.........

Sunday, July 19, 2009

फिश एकुएरियम / अमरजीत कौंके



उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों के
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे उस के नयनों में सपने
जब परिंदों के घर लौटने का
वक्त था

उसकी उम्र में जब आया प्यार
तो उसे
फिश एकुएरियम में
तैरती मछलिओं पर
बहुत तरस आया

फैंक दिया उसने फर्श पर
कांच का मर्तवान
मछ्लिओं को आजाद करने के लिए
तड़प तड़प कर मरी मछलिआं
फर्श पर
पानी के बगैर

वो बावरी नहीं थी जानती
कि मछलिओं को
आजाद करने के भ्रम में
उसने मछलिओं पर कितना
जुलम किया है......

०९८१४२-३१६९८

Saturday, July 18, 2009

शिला / अमरजीत कौंके


वह जो
मेरी कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई

बहुत सिमृतीओं का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हंसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आया
इस तरह यादों से परे
शिला हो गई वह

उसके एक और मैं था
सूरज के घोडे पर सवार
किसी राजकुमार की भाँति
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अंगुली पकड़ कर
अनोखे अम्बरों में
उसे घुमाता

एक और उसका घर था
जिसमे उसकी उम्र दफ़न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलांग रहे थे

एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिंधूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था

समाज के बंधन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेडिआं बनते जा रहे थे
उसे अब लगता था
कि उसके सपने
उसके संस्कार ही खा रहे थे

इन सब में इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई....................

अंतहीन दौड़ / अमरजीत कौंके


मैं रेस का घोड़ा हूँ
मुझ पर हर किसी ने
अपना अपना दांव लगाया है

किसी ने ममता
किसी ने फर्ज़
संस्कार परम्पराएं
कहीं मोहब्बत, मोह , भय
किस किस तरह का
वास्ता पाया है

अनगिनत सदिओं से
मैं दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़

दौड़ता दौड़ता कभी गिरता हूँ
उठता हूँ
और फिर दौड़ने लगता हूँ

मेरी कोई जीत मेरी नहीं
मेरी कोई हार मेरी नहीं
मेरा कुछ भी मेरा नहीं

मोह, मोहब्बत, ममता,
रिश्तों का क़र्ज़ उतारने के लिए
मैं लगातार दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़

मैं लगातार दौड़ रहा हूँ

और पीछे छूटती जा रही हैं कविताएँ..................

कुछ शब्द / अमरजीत कौंके


कुछ शब्द

लिखे थे
किसी और के लिए
पढ़े किसी और ने
समझा कोई और

पढ़ कर
भावुक कोई और हुआ
प्रभावित कोई और
गुस्से
कोई और हुआ
ख़ुशी हुई किसी और को

कुछ शब्द
जिस के लिए लिखे थे

सिर्फ उसी ने नहीं पढ़े ................

Wednesday, March 25, 2009


pahli vaar blog par likhne ja raha hun
jaise koi baacha chalna sikhta hai
aur girta hai